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सं यन्मि॒थः प॑स्पृधा॒नासो॒ अग्म॑त शु॒भे म॒खा अमि॑ता जा॒यवो॒ रणे॑। यु॒वोरह॑ प्रव॒णे चे॑किते॒ रथो॒ यद॑श्विना॒ वह॑थः सू॒रिमा वर॑म् ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

saṁ yan mithaḥ paspṛdhānāso agmata śubhe makhā amitā jāyavo raṇe | yuvor aha pravaṇe cekite ratho yad aśvinā vahathaḥ sūrim ā varam ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

सम्। यत्। मि॒थः। प॒स्पृ॒धा॒नासः॑। अग्म॑त। शु॒भे। म॒खाः। अमि॑ताः। जा॒यवः॑। रणे॑। यु॒वोः। अह॑। प्र॒व॒णे। चे॒कि॒ते॒। रथः॑। यत्। अ॒श्वि॒ना॒। वह॑थः। सू॒रिम्। आ। वर॑म् ॥ १.११९.३

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:119» मन्त्र:3 | अष्टक:1» अध्याय:8» वर्ग:20» मन्त्र:3 | मण्डल:1» अनुवाक:17» मन्त्र:3


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर अगले मन्त्र में स्त्री-पुरुष के करने योग्य काम का उपदेश किया है ।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (अश्विना) स्त्री-पुरुषो ! (यत्) जो विद्वान् (चेकिते) युद्ध करने को जानता है वा जो (युवोः) तुम दोनों का (रथः) अति सुन्दर रथ (मिथः) परस्पर युद्ध के बीच लड़ाई करनेहारा है वा जिस (वरम्) अति श्रेष्ठ (सूरिम्) युद्ध विद्या के जाननेवाले धार्मिक विद्वान् को तुम (वहथः) प्राप्त होते उसके साथ वर्त्तमान (अह) शत्रुओं के बाँधने वा उनको हार देने में (यत्) जिस (शुभे) अच्छे गुण के पाने के लिये (प्रवणे) जिसमें वीर जाते हैं उस (रणे) संग्राम में (पस्पृधानासः) ईर्ष्या से एक दूसरे को बुलाते हुए (मखाः) यज्ञ के समान उपकार करनेवाले (अमिताः) न गिराये हुए (जायवः) शत्रुओं को जीतनेहारे वीरपुरुष (समग्मत) अच्छे प्रकार जायें उसके लिये (आ) उत्तम यत्न भी करें ॥ ३ ॥
भावार्थभाषाः - राजपुरुष जब शत्रुओं को जीतने को अपनी सेना पठावें तब जिन्होंने धन पाया, जो करे को जाननेवाले, युद्ध में चतुर औरों से युद्ध करानेवाले विद्वान् जन वे सेनाओं के साथ अवश्य जावें। और सब सेना उन विद्वानों के अनुकूलता से युद्ध करें जिससे निश्चल विजय हो। जब युद्ध निवृत्त हो रुक जाय और अपने-अपने स्थान पर वीर बैठें तब उन सबको इकट्ठा कर आनन्द देकर जीतने के ढंग की बातें-चीतें करें, जिससे वे सब युद्ध करने के लिये उत्साह बाँध के शत्रुओं को अवश्य जीतें ॥ ३ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनः स्त्रीपुरुषकृत्यमाह ।

अन्वय:

हे अश्विना यद्यो विद्वांश्चेकिते यो युवो रथो मिथो युद्धे साधकतमोऽस्ति यं वरं सूरिं युवां वहथस्तेनाह सह वर्त्तमाना यच्छुभे प्रवणे रणे पस्पृधानासो मखा अमिता जायवः समग्मत सङ्गच्छन्तां तस्मा आप्रयतन्ताम् ॥ ३ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (सम्) (यत्) यस्मै (मिथः) परस्परम् (पस्पृधानासः) स्पर्द्धमानाः (अग्मत) गच्छत (शुभे) शुभगुणप्राप्तये (मखाः) यज्ञा इवोपकर्त्तारः (अमिताः) अप्रक्षिप्ताः (जायवः) शत्रून् विजेतारः (रणे) संग्रामे (युवोः) (अह) शत्रुविनिग्रहे (प्रवणे) प्रवन्ते गच्छन्ति वीरा यस्मिन् (चेकिते) योद्धुं जानाति (रथः) (यत्) यः (अश्विना) दम्पती (वहथः) प्राप्नुथः (सूरिम्) युद्धविद्याकुशलं धार्मिकं विद्वांसम् (आ) समन्तात् (वरम्) अतिश्रेष्ठम् ॥ ३ ॥
भावार्थभाषाः - राजपुरुषा यदा शत्रुजयाय स्वसेनाः प्रेषयेयुस्तदा लब्धलक्ष्मीकाः कृतज्ञा युद्धकुशला योधयितारो विद्वांसः सेनाभिः सहावश्यं गच्छेयुः। सर्वाः सेनास्तदनुमत्यैव युध्येरन् यतो ध्रुवो विजयः स्यात्। यदा युद्धं निवर्त्तेत स्वस्वस्थाने वीरा आसीरँस्तदा तान् समूह्य प्रहर्षविजयार्थानि व्याख्यानानि कुर्युर्यतः ते सर्वे युद्धायोत्साहिता भूत्वा शत्रूनवश्यं विजयेरन् ॥ ३ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - राजपुरुषांनी जेव्हा शत्रूंना जिंकावयाचे असेल तेव्हा आपली सेना पाठवावी. धनयुक्त, कृतज्ञ, युद्धकुशल योद्ध्यांनी तसेच इतर विद्वानांनी सेनेबरोबर जावे. सर्व सेनेने विद्वानांच्या सल्ल्यानुसार युद्ध करावे. ज्यामुळे निश्चित विजय प्राप्त व्हावा. जेव्हा युद्ध थांबेल व आपापल्या स्थानी वीर राहतील तेव्हा त्या सर्वांना एकत्र करून आनंदित करावे व जिंकण्याची भाषा बोलावी. ज्यामुळे ते सर्व युद्ध करण्यास उत्साहाने तयार होतील व शत्रूंना जिंकतील. ॥ ३ ॥